अपनी ज़मीन तलाशती नई जड़ें

जसिंता केरकेट्टा

भागते हुए छोड़कर अपना घर
पुआल, मिट्टी और खपरे
पूछते हैं अक्सर
ओ शहर ! 
क्या तुम कभी उजड़ते हो
किसी विकास के नाम पर?1

मार्च का महीना। एक अजीब सी उमस भरी गर्मी की शुरूआत। शहर धूल, धकड़ और धुआँ-धुआँ सा लगता था। पर उस रात रायपुर (छत्तीसगढ़) में दंतेवड़ा के लिए रात की आख़िरी बस की आख़िरी सीट मिल गई। अचानक आधी रात को रास्ते, खेत और जंगल बारिश में भींगने लगे। रात को नींद में ऊंघते हुए महसूस हुआ बाहर बारिश हो रही है। लगा सपने में कुछ बरस रहा है और धीरे-धीरे जैसे मेरा माथा भींग रहा हो। अचानक हड़बड़ा कर उठी, बारिश का पानी बस की छत से होकर मेरे माथे पर टपक रहा था। नींद टूट गई। सुबह तक फिर से सोने की कोशिश करती रही मगर अंधेरे में पीछे छूटते पेड़, पहाड़ दिखने लगे। बस हिचकोले खाती हुई भागी जा रही थी। भोर का उजाला बिखरने लगा और तभी बारिश से धुला पहाड़, अधखिले महुवे के पेड़ साफ़-साफ़ दिखने लगे। बस कंडक्टर चिल्ला रहा था–“गीदम आ चुका है.. गीदम.. गीदम”। मैंने करवट बदल कर याद कीं  “बाज़ार का दिन है” कविता की कुछ पँक्तियाँ। इस कविता ने मुझे पहले-पहल बहुत प्रभावित किया था।

एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
पर महुवा लेकर गीदम के बाज़ार जाने से
डर लगता है2

सामने वही गीदम का बाज़ार था। गाँव-गाँव से आदिवासी स्त्री पुरुष, बच्चे, जवान सभी रात के किसी मेले से घर लौट रहे थे। गीदम बस स्टैंड के पास सभी बस की राह ताक रहे थे। आदिवासी लड़कियाँ बैठी-बैठी नींद में ऊँघ रही थीं। कुछ आदिवासी लड़के भोर को भी काला चश्मा लगाकर उन्हें आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे। अचानक कुछ गाड़ियाँ रुकीं और गाड़ियों के पीछे खुली जगह में स्त्री, पुरुष, बूढ़े, बच्चे लाद लिए गए। जगह न होने पर कुछ युवा गाड़ी से लटक गए। गाड़ी डगमग डगमग होती दूर निकल गई…

थोड़ी देर में हम छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा ज़िले के मुख्य शहर में थे। मार्च के माह में जगह-जगह गोंड आदिवासी पेन करसाड़ मना रहे थे। 

गोंड आदिवासियों की आस्था के अनुसार पेन, पूर्वजों की आत्माओं का समूह है, जिसमें एक गोत्र के सभी वंशज अपनी-अपनी मृत्यु के बाद जा मिलते हैं। आदिवासियों में स्वर्ग और नर्क की अवधारणा नहीं है। आदिवासी समाज के जिस पहले व्यक्ति से अलग-अलग गोत्र की शुरूआत हुई, उसके वंशज जहाँ भी हैं, वे एक जगह एकत्र होते हैं और पेन करसाड़ मनाते हैं। इस दिन एक गोत्र के लोग अपने पेन के साथ नाचते हैं। ख़ास तरह की लकड़ी से विशेष रूप से तैयार की गई आकृति जिसमें पुरखों की आत्मा का वास माना जाता है, उसे ढोकर लोग नाचते हैं, ख़ुशी मनाते हैं। कई अलग-अलग गाँव के लोग करसाड़ में आते हैं और एक साथ नाचते हैं। 

छवि १ / Image 1

अलग-अलग गोत्र के वंशजों का कारसाड़ अलग-अलग समय में हो सकता है। कुछ समुदाय इसे साल में एक बार मनाते हैं, वहीं कुछ चार साल में एक बार। इसकी तैयारी महीनों चलती है। पेन करसाड़ में एक गोत्र के लोग लकड़ी के बने अपने पुरखे के रूप को, अर्थात अपने पेन को, लेकर पहुँचते हैं। लकड़ी से बना यह पेन या पुरखों का रूप हर साल नहीं बनाया जाता। कुछ पेन हज़ारों साल पहले के लोगों द्वारा बनाया गया था जो आज भी मौजूद है और उसकी लकड़ी वैसी की वैसी है। हर सात या बारह साल में सिर्फ़ सियाड़ी की रस्सी और बाँस से गूँथा उसका वस्त्र ही बदला जाता है। 

लोग मानते हैं कि पेन खुद अपने वंशज में से किसी व्यक्ति को चुनता है। उसकी शक्ति से ही व्यक्ति उस पेड़ का भी चयन करता है जिससे पेन का रूप तैयार किया जाता है। लोग कहते हैं कि पेन अपने लिए पेड़ ख़ुद चुनता है। फिर उस पेड़ की लकड़ी को एक विशेष आकार दिया जाता है। इसका ध्यान रखा जाता है कि इस पूरी प्रक्रिया में  पसीने की एक बूंद भी लकड़ी पर न गिरे। फिर उस आकृति को सजाने के लिए सियाड़ी की रस्सी और बाँस को ख़ास तरीके से गूँथा जाता है। गूँथने का काम हाथ पीछे रखकर आकृति को बिना देखे किया जाता है। उसपर मोर के पंख सजाए जाते हैं। पेन तैयार करना एक श्रमसाध्य कार्य है और यह कई महीनों तक चलता है। 

पेन की लकड़ी की यह आकृति काफ़ी भारी होती है। सामान्य आदमी के लिए इसे ढोकर कुछ दूर चलना भी मुश्किल है पर लोगों का विश्वास है कि पुरखों की आत्मा लकड़ी से तैयार पेन में, जिसे वे “आंगा” कहते हैं, रहती है इसलिए चयनित व्यक्ति उसे ढोकर पचास किलोमीटर और कभी-कभी दो, तीन दिन की यात्रा भी सहजता से पैदल तय करता है। चारों तरफ से वंशज पेन कारसाड़ मानने के लिए निर्धारित जगह पर पहुँचते हैं और पेन को कंधे पर ढोकर घंटो नृत्य करते हैं। दूर-दूर से गाँव के लोग जुटते हैं और उनके साथ नृत्य करते हैं। वंशजों का नृत्य अलग धुन पर होता है, वहीं दूसरे गाँवों से आए लोग अलग धुन पर नृत्य करते हैं। यह सिलसिला देर शाम तक चलता है। 

छवि २/ Image 2

छवि ३/ Image 3

दंतेवाड़ा के कुछ साथियों के साथ हम देर तक करसाड़ में नाचते रहे। चारों ओर जंगल है और एक कविता याद आती है — 

जंगल का आदमी सीखता है
पगडंडियों से चलना,
पेड़ों से विकसित होना,
बारिश से नाचना
और गीत 
खुखड़ियों की तरह
उग आते हैं खुद ब खुद ।

जंगल कहता है 
वह समुद्र नहीं  हो सकता
क्योंकि समुद्र छीन लेता है
नदियों की पहचान;
जंगल ही जिंदा रखता है
हर चीज़, उसकी पहचान के साथ।

जंगल के आदमी को 
जंगल में मारना आसान नहीं।
इसलिए बनाए जाते हैं रास्ते
जंगल से बाहर निकलने को,
यह जानते हुए कि एक दिन
पीछा करते हुए उन रास्तों का
मिटने लगेगी
पगडंडियों सी उसकी चाल
बारिश की तरह उसके नाच
पेड़ों की तरह उसका विकास
और खुखड़ियों की तरह 
उग आते उसके गीत।3

छत्तीसगढ़ के कोयतुर आदिवासी बताते हैं कि वे खुद को कोयतुर क्यों कहते हैं और किस तरह कोयतुर हिन्दू समाज से भिन्न है। ऐसे समय में जब भारत में आदिवासी समाज प्रकृति से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है, उन्हें हिन्दू बताए जाने पर लोगों में प्रतिरोध है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर भी अपनी किताब संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं — “आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हमारे हिन्दू समाज और हिन्दू संस्कृति का निर्माण हुआ। अब सभी इतिहासकार मानने लगे हैं कि द्रविड़ जाति प्राचीन विश्व की अत्यंत सुसभ्य जाति थी और भारत में भी सभ्यता का वास्तविक आरंभ इसी जाति ने किया था।”

गोंड या कोयतुर आदिवासी द्रविड़ समुदाय है। गोंड युवा ललित ओढ़ी कहते हैं—

गोंड आदिवासी समुदाय ख़ुद को कोयतुर कहते हैं। कोयतुर, कोया शब्द से बना है, जिसका अर्थ “माँ  का गर्भ” है। अर्थात वे माँ के गर्भ से पैदा होने वाले कोयतुर अर्थात मानव हैं। हममें सब बराबर हैं। हमारी कोई जाति नहीं। हम समुदायों में जीने वाले लोग हैं। दूसरे राज्यों के आदिवासी मसलन झारखंड, ओड़िशा क्षेत्रों में संताली, हो, मुंडा, खड़िया, कुडूख़ आदि आदिवासी समुदाय भी ख़ुद को मानव ही कहता है। जैसे संताल ख़ुद को होड़ होपोन कहते हैं। हो, मुंडा, कुडुख़ भी क्रमशः हो, होड़, कुडुख़र आदि कहते हैं। होड़ का अर्थ मनुष्य है। हिन्दू समाज के वर्ण व्यवस्था से हम अलग हैं।

छत्तीसगढ़ में कोया बुमकाल गोंड आदिवासियों का एक संगठन है। इससे जुड़े आदिवासी युवा अपनी भाषा, संस्कृति, प्रकृति से जुड़े अपने विश्वासों के वैज्ञानिक पहलुओं का गंभीरता से अध्ययन कर रहे हैं। वे अपने ग्राम व्यवस्था, पुरखों द्वारा स्थापित व्यवस्था और प्रकृति पर उनकी आस्था को नई पीढ़ियों को बाँटने का काम कर रहे हैं। ललित ओढ़ी ग्राम या नार व्यवस्था को लेकर कहते हैं

गोंड आदिवासी समाज में एक मजबूत नार व्यवस्था है। हम मानते हैं कि किसी गाँव की सीमा के अंदर जितने भी पहाड़, नदी, तालाब, झरने, जीवित पानी के जल स्रोत, खेत आदि होते हैं, वे सब प्राकृतिक शक्तियों द्वारा संचालित हैं। पूरे नार या ग्राम को स्त्री पुरुष शक्तियों द्वारा एक साथ संचालित माना जाता है। इनमें सात स्त्री शक्ति दस पुरुष शक्ति शामिल हैं। पुरुष शक्तियों में राजा राव, छंद राव, डांड राव, पाट राव, घाट राव, कापड़ राव, कपो राव, कोड़ा राव, किस राव बैहर राव कहा जाता है। राव का अर्थ शक्तियां हैं। सात स्त्री शक्तियों में घाट कन्या, बहैर कन्या, सुलकी कन्या, जलकी कन्या, येरे (बही) कन्या, मुरयेर कन्या तोंदे कन्या हैं। पाँच शक्तियां माँ मानी जाती हैं। इनमें आना दुम्मा यायो, तलुर मुत्ते यायो, मालवी यायो, कोड़ोन यायो (चिकला या गंगना यायो) जीमिदारिन यायो शामिल है़ं। पाँच पेन हैं, जिनमें कर्रे पेन, भीमाल पेन, कटरेंगा पेन, भुकुर्रा पेन, भूमयार पेन के रूप में जानते हैं।  इन सारी शक्तियों के लिए गाँव में अलगअलग जगहें हैं। लोग समयसमय पर उन स्थलों पर जाकर उनकी पूजा करते हैं  नार व्यवस्था के भीतर हरेक चीज एक दूसरे से जुड़ी है। किसी एक का भी नुकसान हो तो सभी प्रभावित होते हैं। मसलन पहाड़ के समाप्त होने से बारिश की शक्ति प्रभावित होती है। नदी के समाप्त होने से लोगों की जीवन शैली प्रभावित होती है।

गोंड समाज के नितिन झाड़ी बतलाते हैं

प्रकृति की शक्तियों की अपनी, अपनी जिम्मेदारियां हैं। मसलन पहाड़ पर कप्पे राव शक्ति है, जो एक चिड़िया के रूप में है और कपकप की आवाज़ निकलाती है। उसकी आवाज़ से पुरखे पहाड़ों पर आने वाले संकट के संकेतों को समझते थे।  इस आवाज़ से पुरखे समझ जाते थे कि वे कब शांति से सो सकते हैं और उन्हें कब ख़तरे के प्रति जागृत होना है। यह आवाज़ उन्हें चैन से सोने का संदेश भी देती है। जलकी कन्या बारिश की शक्ति मानी जाती है। भीमाल राव जलकी कन्या से बारिश की मांग करता है। यह पूरे नार या ग्राम को संभालने, उसकी चिंता करने वाली शक्ति है। गाँव की सीमा की रक्षा के लिए राजा राव, छंद राव और डांड राव शक्तियां है़ं। इनमें राजा राव सबसे बड़ी शक्ति  है। कोड़ोंन यायो शक्ति को खेती की पहली उपज चढ़ायी जाती है। नियम के अनुसार पेड़ का पहला फल उन्हें दिया जाये और फल को पकने के बाद ही खाया जाए, ताकि उसके बीज नई फसलों, फलों के लिए धरती को मिल सकें। कापड़ राव शक्ति लोगों को नमक की जानकारी देती है। जहाँ भी गाय मिट्टी चाटती है वहाँ नमक होने की संभावना होती है। ऐसी जगहों पर लोग खुदाई कर नमक प्राप्त करते थे। इसलिए गाँव में गायों का होना ज़रूरी माना जाता है। तोंदे कन्या जीवित जलस्रोत की शक्ति है जो पहाड़ों पर जीवित जलस्रोत ढूंढने में  मदद करती है। इस तरह गाँव की सीमा के भीतर कई शक्तियां हैं जो प्राकृतिक चीज़ों को लोगों के लिए बचाती हैं और उनके उपयोग में लोगों का मार्गदर्शन करती हैं। गाँव के भीतर गोटूल पूरे ग्राम व्यवस्था को समझाने, नई पीढ़ी को शिक्षित करने का केंद्र था जो तथाकथित मुख्यधारा के दुष्प्रचार के कारण हाशिए पर चला गया है, पर इसके बावजूद कुछ गोटूल आज भी बचे हुए हैं।

राम कुंजाम कहते हैं

गाँव के भीतर गोरलाम होता है। यह वह स्थान है जहाँ बाड़े में गायबैल रखे जाते हैं। साथ ही एक बाड़ी भी होती है जहाँ सागसब्जियां उगाई जाती हैं। इस बाड़ी कोगुडाभी कहते हैं। लोग मानते हैं कि इसी बाड़ी से रिश्तेनाते बनते हैं। अपनी बाड़ी से यदि किसी ने किसी फल का बीज दूसरे व्यक्ति को दिया तो आने वाले फल पर उसका भी हिस्सा रहता है। इसलिए वह दूसरे की बाड़ी से भी फल ले जा सकता है। ठीक इसी तरह किसी परिवार की बेटी मांगने का पहला अधिकार उस परिवार को अपनी बेटी देने वाले परिवार का होता है। इसेगुडाबाटाबिज्जाका रिश्ता कहा जाता है।

हेमलाल कुंजाम कहते हैं

मनुष्यों की संख्या बढ़ने और प्रकृति पर उनका बोझ बढ़ने पर भी प्रकृति का संतुलन बना रहे, इसलिए हर गोत्र के समुदाय को तीन जिम्मेवारियां दी जाती है। उसे एक जानवर, पक्षी और पेड़ की रक्षा करनी होती है। वह अपने गोत्र से जुड़े जीव की हत्या नहीं कर सकता, उसका भक्षण कर सकता है। इस तरह हर गोत्र एक जीव, पेड़ और पक्षी की रक्षा करता है, ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे। इसलिए आदिवासी समुदाय में जीव, पेड़, पक्षी से संबधित गोत्र ही होते हैं। अलगअलग आदिवासी समुदाय के गोत्र अपनीअपनी भाषा के अनुसार हैं, लेकिन उसका अर्थ कमोबेश एक है।

आदिवासी युवा इस विश्वास के साथ अपने पेन पुरखों के ज्ञान की ओर लौट रहे हैं और उनके साथ साथ मैं भी लौट रही हूँ यह सोचते हुए,

मैं ढूंढता हूँ
वह जगह जहाँ  
गाड़ दी गई थी
मेरी नाभि की नाल4

अपनी संस्कृति पर इसी गहरे यकीन के कारण छत्तीसगढ़ सहित देश के सभी आदिवासी जंगल, पहाड़ों  पर कंपनियों के कब्ज़े के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष कर रहे हैं। आदिवासियों का विश्वास है कि जंगल और पहाड़ों को नष्ट करने से उनमें वास करने वाली शक्तियां कमज़ोर होंगी। प्रकृति का पूरा संतुलन गड़बड़ा जाएगा। पुरखों का मार्गदर्शन उन्हें नहीं मिल सकेगा और आदिवासी समाज दिग्भ्रमित होगा। इसलिए वे नाचते हुए दिन-रात पहाड़ों को बचाने के संघर्ष में जुटे हुए हैं। वे अपने लिए नहीं उन सभी लोगों की लड़ाई भी लड़ रहे हैं जिन्हें जंगल पहाड़, नदी, झरने, बारिश अच्छे तो लगते हैं मगर जो इन्हें  बचाने की लड़ाई में उनके साथ कहीं खड़े नहीं होते। आज प्रकृति की रक्षा करने वाले और उनके लिए लड़ने वाले आदिवासियों के साथ सभी को आने की ज़रूरत है। इन लोगों ने जंगल और पहाड़ों को बचाने के लिए अपने प्राण दिए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी कुर्बानी दे रहे हैं। सिर्फ़ इसलिए कि वे जंगल और पहाड़ों से बेइंतिहा प्यार करते हैं।

थोड़े से पैसे के लिए
जो अपना ईमान बेचते हैं
वे क्या समझेंगे
पहाड़ों के लिए कुछ लोग
क्यों अपनी जान देते हैं।5


New Roots Searching For Their Earth

– Jacinta Kerketta

Translated from Hindi by Richa Nagar

Leaving behind their homes,
their soil, their bales of straw,
Fleeing the roof over their heads, they often ask,
O city!
Are you ever wrenched by the very roots
In the name of so-called progress?6

It was the month of March. The beginning of a strange summer, saturated with humidity. The city felt like dust and smoke. But on that night in Raipur (Chhattisgarh), I got the last seat on the last bus to Dantewada. In the middle of the night, sudden rain showers drenched the roads, fields, and forests. Amidst night’s sleepiness, I sensed it was raining outside. As if something flowed in my dreams. Startled, I got up. The water was trickling from the roof of the bus, wetting my forehead. Sleep broke. For the rest of the night until the break of dawn, I tried falling back asleep. Instead, I began to see glimpses of trees, mountains, left behind  under darkness’s cloak. The bus was running with jolts over the bumpy road. Dawn’s light splashed everywhere, illuminating the rain-washed mountain and the half-blooming trees of mahua. The bus conductor was screaming, “Geedam has arrived.. Geedam.. Geedam.” I turned on my side, remembering the lines of the poem, “Bazaar ka din hai” – It’s the day of the bazaar. This one left an impression on me in the very beginning:   

An Adivasi girl
Is not scared of venturing alone into the thick jungle
The tiger and the lion do not scare her
But she fears walking with mahua, into the bazaar of Geedam7

That same bazaar of Geedam was in front of me. Adivasi women, men, children, youth from the surrounding villages were all returning home from an evening fair. All of them were waiting for the bus at the Geedam bus stand. Adivasi girls sat and snoozed. Some Adivasi boys donned sun-glasses to impress them even at the crack of dawn. Suddenly, a few trucks stopped and women and men, old and young were loaded in the empty spaces behind the trucks. With all the spots gone, several young men hung from the last remaining truck. Staggering, that truck drove off into the distance… 

After some time, we were in the main town of Dantewada District of Chhattisgarh. It was the month of March and Gond Adivasis were celebrating Pen Karsad all around us.

According to the beliefs of Gond Adivasis, Pen is a community of ancestral souls in which the descendants of a shared gotra reunite after death. Adivasis do not carry assumptions about swarg and nark, heaven and hell. They worship the first human from whom the different gotras originated in the Adivasi society; descendants of those gotras—wherever they are—come together and celebrate Pen Karsad. On this day, people of the same gotra dance with their Pen. People from many different villages come together in Karsad and dance together. They dance and rejoice while carrying a special form, Pen, created by a unique wood, an image in which their ancestors reside.8

The descendants of different gotras can mark Karsad at different times. Some communities celebrate it once a year, others observe it once every four years. The preparations for Karsad continue for months. In Pen Karsad, people from one gotra bring their Pen, or ancestor’s image made of wood. This Pen or wood structure of ancestors is not created every year.  Some existing Pen were created by people from thousands of years ago and their wood is intact. It is only its clothing, woven with siyadi rope and bamboo, that is changed every seven or twelve years.

People believe that it is the Pen who chooses one’s own descendants. It is through the power of that connection that the descendant also chooses the wood with which the Pen is prepared. People also say that each Pen chooses a tree for themself. Then that wood from the tree is given a particular image. During this process care is taken to ensure that not a single drop of sweat falls on the wood. Next, siyadi rope and bamboo are woven in a special way to decorate that image. The work of weaving is done by keeping the hands in the back and without seeing the image. Peacock feathers are then used to adorn it. Preparing a Pen is labor intensive and takes months to complete.

This image made out of wood is heavy. For an ordinary human, it is difficult to carry it even for a short distance but people believe that the soul of their ancestors – or Aanga — dwells in the Pen, that is why the chosen person can carry it on their shoulders while walking for up to fifty kilometers, sometimes for two-three days.  People gather from all over to celebrate Pen Karsad and they dance for hours while carrying the Pen on their shoulders. Folks from distant villages join in and dance with them. The descendants dance to a particular tune, while the visitors dance to a different one. The dancing for Pen Karsad goes on late into the evening.9

In Karsad, we danced for a long time with some friends from Dantewada. The forest was all around. A poem came to mind: 

The man of the jungle learns
To walk from the trails
To grow from the trees
To dance from the rains
And songs
Sprout by themselves
Like mushrooms.

The jungle says
It cannot be the sea
For, the sea snatches away
Identity of the rivers
Only the jungle keeps alive
Each with its own identity.

It is not easy to kill in the jungle,
the man of the jungle
So roads are built
To lead away from the jungle
Knowing that one day
Following those roads
Will start erasing
His walk like trails
His dance like rains
His growth like trees
And his songs
Sprouting like mushrooms.10

The Koyatur Adivasi of Chhattisgarh explain why they call themselves Koyatur and how they are different from the Hindu society. Adivasi society in India is intimately connected with nature, and it protests against being labelled as Hindu. The National Poet Ramdhari Singh Dinkar writes in his book, Sanskriti ke Char Adhyaya (The Four Chapter of Culture) — “When Aryans created a confluence of castes and cultures, that is what formed our Hindu society and civilization. All historians now agree that the Dravids were an extremely civilized caste of the ancient world and it is they who brought the true dawn of civilization in India.”

Gond or Koyatur Adivasis are a Dravid community. The young Gond poet Lalit Odhi states, “Gond Adivasis call themselves Koyatur. Koyatur come from Koya, which means, ‘mother’s womb’. In other words, they are Koyatur or humans borne from the mother’s womb. We are all equal. There is no such thing as caste. We are humans who live in communities. Other Adivasis including Santhali, Ho, Munda, Kudukh in other states of India such as Jharkhand and Orissa also call themselves humans. For instance, Santhals call themselves Hod Hopon. [Similarly], Ho, Munda, and Kudukh also call themselves Ho, Hod, Kudukhar. Hod means human. We are different from the caste system of the Hindu society.”

Koya Bumkal is an organization of Gond adivasis in Chhattisgarh. The young Adivasis associated with it are seriously studying the scientific dimensions of their beliefs associated with their language, culture, and nature. They are sharing with the new generations the system of their villages established by their ancestors, and their devotion to nature. Lalit Odhi writes about their village or Nar system:  

[There] is a strong Nar system in the Gond Adivasi community. We believe that all the mountains, rivers, ponds, water falls, sources of running water, and fields that lie within the boundaries of the village are directed by natural forces. These include the powers of seven women and ten men. Among men’s powers are Raja Rav, Chhand Raav, Daand Raav, Paat Raav, Ghaat Raav, Kaapad Raav, Kapo Raav, Koda Raav, Kis Raav, and Baihar Raav. Raav means powers. Seven women’s powers include Ghat Kanya, Bahair Kanya, Sulki Kanya, Jalki Kanya, Yere (Bahi) Kanya, Muryer Kanya, and Tinde Kanya. Five powers are regarded as mothers — Aana Dumma Yayo, Talur Mutte Yayo, Malvi Yayo, Kodon Yayo (Chikla ya Gangna Yayo) and Jeemidarin Yayo. There are five Pen — Karre Pen, Bheemal Pen, Katrenga Pen, Bhukurra Pen, and Bhoomyar Pen. Separate places are assigned in a village for each of these powers. People visit these places from time to time and worship them. In the Nar system, everything is connected with everything else. If any one element is scarred or disturbed, the whole is adversely affected. For instance, when a mountain is destroyed, the powers of rain are affected. When the river vanishes, people’s lives are impacted. 

Nitin Jhadi of Gond Samaj tells us,

Each force of nature has its responsibilities. For example, Kappe Raav power sits on the mountain in the form of a bird and makes the sound of ‘kap-kap.’ The ancestors heard this sound and felt the signals of any danger approaching the mountains. This sound told them when they could sleep in peace and when they had to be alert to an impending hazard. Jalki Kanya is regarded as the shakti or power of rain. Bheemal Raav demands rain from Jalki Kanya. This shakti is concerned with the whole Naar or village and holds it together. Raja Raav, Chhand Raav, Daand Raav are the shaktis that  protect the boundary of the village  Of these Raja Raav is the biggest power. The first produce from the agricultural cycle is dedicated to Kodon Yayo shakti. According to the rules, the first fruit of the tree is to be given to the shakti and that fruit can only be eaten after it has ripened so that its seed can nourish the earth for new crops and fruits. Kaapad Raav informs people about salt. Wherever the cow licks the soil, there is a possibility of salt, and this is where people dug for salt. This is the reason why the presence of cows is considered crucial for villages. Tonde Kanya is the power for running water sources and helps to locate sources of running water in the mountains. Thus, many shaktis inside the boundary of the village protect natural resources for humans and guide them about their use. The Gotul inside the village was once the center of teaching the new generation about the organization of the whole village. However, more recently, the Gotul has sadly been pushed to the margins due to bad publicity given by the so-called mainstream. Still, some Gotuls continue to exist. 

Raja Kunjam says, 

[Inside] the village is the Gorlaam. This is the place where cows and buffalos are are kept in the shed. There is also a ‘baadi’ or Guda, for growing plants and vegetables. People believe that the baadi helps to build connections and relationships among them. If someone gives the seed of a fruit to another they also have a legitimate part in the crop of that fruit, so they are entitled to enjoy the fruits from another’s baadi. Similarly, the first right to ask for the hand of a family’s daughter resides with the family that has given their daughter to the same family. This is called a relationship of Guda-Baata-Bijja.

Hemlal Kunjam adds, 

[In] order to ensure that the balance of nature is maintained even in the face of increasing numbers of humans and their weight on nature, each gotra of a community is given three responsibilities: each human has to protect an animal, a bird, and a tree. They can neither kill nor consume an animal connected to their gotra. In this way, each gotra strives to protect an animal, a tree, and a bird to help maintain the balance of nature. This is why Adivasi communities only have gotras associated with animals, trees, and birds. The names of the gotra vary according to the languages of different Adivasi communities, but their meanings are more or less the same across the communities.

It is with all of these beliefs that young Adivasis are returned to the knowledge of the Pen ancestors. And along with them I am returning, too.

I search for
The place
Where my umbilical cord
Was buried11

It is because of this fierce belief in their culture that Adivasis from Chhattisgarh and the rest of the country are in a continuous struggle against the corporate control of jungles and mountains. It is the conviction of Adivasis that the destruction of forests and mountains will weaken the powers that reside in them, disturbing in effect the whole balance of nature. In a world of imbalanced shaktis, the humans will lose their ancestral guidance and the Adivasi society will be steered away from the correct path. So, to protect their mountains, the Adivasis are dancing day and night. The battles they fight are not for themselves alone. They also fight for those who love to enjoy the mountains, rivers, waterfalls, and rain, but who simultaneously maintain a distance from the Adivasis who are fighting to protect them.  Today everyone must stand alongside the Adivasis. The Adivasis have given their lives to protect the jungles and mountains, and they continue to sacrifice themselves generation after generation. Only because their love for the jungle and mountains knows no bounds.

Those who sell their honesty
For bits of money
Can hardly understand
Why some people give their lives
For the mountains.12

Suggested citation:
Kerketta, J. 2020. “अपनी ज़मीन तलाशती नई जड़ें.” Translated to “New Roots Searching For Their Earth” by R. Nagar. AGITATE! 2: http://agitatejournal.org/articleअपनी ज़मीन तलाशती नई जड़ें.

 

  1. “ओ शहर”, जसिन्ता केरकेट्टा के कविता संग्रह, अंगोर, से 
  2. “बाज़ार का दिन है”, विनोद कुमार शुक्ल के कविता संग्रहपचास कविताएं, नयी सदी के लिए चयन, से
  3. “जंगल कहता है”, जसिन्ता केरकेट्टा के कविता संग्रह, जड़ों की ज़मीन/ Land of the Roots, से।
  4. “पृथ्वी की नाभि में”, जसिन्ता केरकेट्टा के कविता संग्रह, जड़ों की ज़मीन/ Land of the Roots, से उद्धृत।
  5. “पहाड़ों के लिए”, शीघ्र प्रकाश्य तीसरे कविता संग्रह, “ईश्वर और बाज़ार”, से।
  6. “O City!” in Jacinta Kerketta’s Angor. Translation reproduced from: https://aartinair.files.wordpress.com/2016/06/fullsizerender-2.jpg
  7. From “Bazaar ka din hai” in Vinod Kumar Shukl, Pachaas Kavitayen: Nayi Sadi Ke Liye Chayan (50 Poems: Selected for the New Century).
  8. See Image 1 in the Hindi text above.
  9. See Images 2 & 3 in the Hindi text above.
  10. “Jangal Kahta Hai/ The Jungle Says”, in Jacinta Kerketta, जड़ों की ज़मीन/ Land of the Roots
  11. “पृथ्वी की नाभि में”/ “In the Navel of Mother Earth,” In Jacinta Kerketta, जड़ों की ज़मीन/ Land of the Roots.
  12.  “पहाड़ों के लिए”/ “For the Mountains”, in Jacinta Kerketta’s forthcoming collection of poems,  ईश्वर और बाज़ार/ God and the Bazaar.

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